लम्बे समय के बाद
मैं जब गांव लौटा
तो वहाँ सब पहले ही जैसा था
लगभग
हाँ, मगर कुछ तो कमी थी
सांझ ढलती जा रही थी
सूनापन सा लग रहा था
फिर यकायक याद आया
कि वहाँ पीपल पे एक कोयल थी जो
हर शाम को गाती थी
कुछ सुर ताल अपनी घोल देती थी
फ़िज़ा में, शाम की
गुनगुना देती थी कुछ किस्से पुराने
सावन के, झूलों के, अपनी ही अदा में
हाँ, मगर अब वो कहाँ है?
पीपल की वो डाल तो
सूनी पड़ी है
फिर कुछ देर दिमाग घुमाया
तो याद आया कि
पोखर के पास वाले गुलमोहर पर
घोंसला रखती थी वो
शायद वहीं हो
मन में कुछ शंका लिए
फिर तेज़ कदमों से चला मैं
जाकर देखा
गुलमोहर की शाख पे
वो अधमरी लेटी हुई थी
पूछ बैठा मैं कि
ओ! कोयल
ज़रा मुझको बताओ , हुआ क्या है
इससे पहले की मैं कुछ और
कह पाता उसे
बह चली एक अश्रुधारा
उसकी आंखों से
असीमित दुख समेटे
और वो बोली कि
मैंने कब यहाँ अपने गले का
भाव आंका
मैंने तो इंसान के भावों को
उसके सुख को, और उल्लास को
कुछ स्वर लहरियों में समेटा है
सदा ही
मैंने तो सावन की हर घटा के साथ
राग मल्हार गाया था
बताओ! क्या कभी बदले में
तुमसे कुछ लिया था?
मगर अब
इस गांव को क्या हो गया है
कोई सुनता ही नहीं है
पहले तो, मैं
हर सुबह , हर शाम
सुनकर खिलखिलाहट,
और वो किलकारियां बच्चों की
गा दिया करती थी कुछ
वात्सल्य के गीत अपने
लेकिन अब
बच्चे तो कहीं दिखते नहीं हैं
शायद उनको
अल्हड़ सा ये आज का संगीत
अब भाने लगा है
या तो मैं अब पहले जैसा
नहीं गाती
और हाँ, शहर !!
शहर तो मैं सालों पहले छोड़ आई थी
जब वहाँ इन धड़धड़ाते वाहनों के
शोरगुल में
दब गई थी कूक मेरी
और अब ये अपना गांव भी
पराया लगने लगा है
ये सब कहते कहते
रुंध गया फिर गला उसका
सहसा, थम गई आवाज़
और वो कूक उसकी
छा गया फिर से वही सन्नाटा
रात गहरी हो चुकी थी
–रणदीप चौधरी ‘भरतपुरिया’